दोस्तों मैंने आज तक कभी गढ़वाली में कोई रचना नही लिखी है। मगर जयाडा जी की सुंदर कविताओं से प्रेरित होकर मैंने भी एक कविता लिखने की कोशिस की है जिसे मैं आप लोगों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ।
शौणु भाई जी कु ब्व्ग्ठया
आज बल बाघ न मारी
खुजौण लाग्यां छीन भाई बंध सभी
देखा आज सारियों का सारी...
यखनि मिली तख नि मिली
बवन लाग्यां छन सभी भाई
रुमुक पव्डी गे अर खुज्योरू के वे
घर माँ परेशां पुरी कुटुम्दारी ...
शौणु भाई जी की ब्वे भट्याणी
घर अवा सभी रात पव्डी ग्यायी
मेरा शौणु का बखरा यानि गैन
नि के होली हमुन कभी कैकी भल्यारी॥
अब ता ब्व्ग्ठया मिली गे घर भी ल्ये गैनी
सची मरयूं पाई।
झटपट जगे आग अर सजे गैनी परात।
भली करी भाडयायी।
पडोश माँ प्रधान जब तोन सुंणी
अपुदु थैलू भी लीक आयी
ब्व्ग्ठया देखि और सोची बिचारी
तब बीस बाँट लगाई
में थे भी क्या चेनू छो
मिन भी दौड़ लगाई
एक बाँट उधार करी की
चुपचाप अपुडा घर आयी
यन भी होन्दु च दग्द्यों कभी
सोचिदी सोचिदी बखरू पकाई
प्वेटीगी भरी की टुप स्ये गयों
आज इनु बखुरु खाई॥
रचनाकार.
धीरेन्द्र सिंह चौहान॥ "देवा"
Thursday, July 31, 2008
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