Wednesday, March 4, 2009

रफ़्तार

रफ़्तार की भी कुछ अलग ही बात होती है
विकास की बात आये तो 
रफ़्तार "मंत्री" होती है
या तो विकास रफ़्तार से होता है
या विकास की रफ़्तार धीमी होती है

अभी कुछ दिन पहले 
एक सज्जन हमसे टकराए
रफ़्तार कुछ ज्यादा थी
इसलिए क्षमा भी न कह पाए

ए गए हर दिन ये सब तो होता ही है
इस शहर की रफ़्तार भी कुछ 
अजीब सी हो गयी है
गावों से पलायन रफ़्तार से हो रहा हैं
उन्ही गांवों में सूनापन 
रफ़्तार से बढ़ रहा है

रफ़्तार से जंगल शहर बन रहे हैं
इंसान नमक प्राणी 
रफ़्तार से नदी नालों को 
गन्दगी दूषित कर रहे हैं

रफ़्तार से सड़कों पर
वाहनों की की जमात बढ़ी है
इसी जमात के चलते
हर चौराहे पर हमने
जिंदगी जीने की कहानी गढ़ी है

आज दुनिया की हर अवाम हैरान है
बढती हुई इस रफ़्तार से परेसान है
सुनाने में तो आता है के पानी कभी कहानी बन जायेगी
बिन पानी के उसी की कहानी 
जानते हुए हर जिम्मेदार नागरिक आज कहाँ है.


रचनाकार.
धीरेन्द्र सिंह चौहान॥ "देवा"

Saturday, January 3, 2009

याद

तुम न जाने क्यूँ मेरे जेहन में आ जाती हो
बनकर घटा दिल आसमान पर चा जाती हो
बरस जाती हो प्यार बनकर
मेरे जलते वीराने में तुम
प्यार भरा सावन बनकर आती हो
तुम न जाने क्यों मेरे जेहन में आ जाती हो

हर बार रोकता हूँ में जज्बातों को
तुम आकर इन्हे ललकार जाती हो
सोचता हूँ दिल में ही रखूं तेरी यादों को
भुलाकर भी हर बार तुम याद आ जाती हो
तुम न जाने क्यों मेरे जेहन में आ जाती हो

सायद तुम्हे मेरे दर्द का अहसास नही
आकर मेरे सपनो में तुम मुस्करा जाती हो
कभी हल ऐ दिल तो पूछा होता
बिना कुछ कहे आकर मेरे ख्यालों में
मुझे हर बार अकेला छोड़ जाती हो

तुम न जाने क्यों मेरे जेहन में आ जाती हो...

धीरेन्द्र चौहान "देवा"

Monday, December 22, 2008

"मेरी क्रिसमस"

धागों सी लगुली
और लागुल्यों माँ फल
फल छीन मीठा
और मीठू वोंकू रश
दिसम्बर कु मेनू
आखिरी दिन बस
द्वी दिन बाद कु
मी आज ही ब्वेली दयों
"मेरी क्रिसमस"


धीरेन्द्र चौहान "देवा"

Monday, October 6, 2008

"बौल्या दादा"

"बौल्या दादा"
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पौडी खाल कु बौल्या दादा
बुध्यंदा माँ बोल्येगे.
छंदा नाती नातुनो कु
गौं गौं माँ रिडियेगे..

बुडुरी दगडी लड़ी जब निर्भाग बुड्या..
तब ता सरम नि आयी
भूखा पेट लेकी च घुम्नाओ
चार दिन बाटी कुछ नि खाई

गों का छोरु ते एक न्यु खेल ह्वेगी
हमारू यु बौल्या दादा
भागाणु च छोरु का पिछने
लेकी तें खूब लाठा बतेंडा.

शर्मसार च हुयों. और मुख लात्केकी
जब बुड्या घर वापस आयी
निर्भाग बुडुरी कु प्रेम तब उमड़ी
जब बुड्या न पतेलु भरी भात खाई

"चिर यौवन सौंदर्य.."

सौंदर्य..

तिलिस्म कहूँ या कह दूँ निगाहें उनकी.
जादुई पलकें और उनका सहारा..
हो के तुम चिर यौवन सौंदर्य.
अनोखे पलों में सजी काया है उनकी.

अधरों पे मुस्कान बिखर जाती है.
फिर जब पलकें क़यामत ढाती हैं.
खुदा का करम फिर होता है मुझ पर
मिल जाती हैं हमसे जब निगाहें उनकी..

अनायास ही एक ख़याल आता है
जब मौजूदगी उनकी महक जाती है
उन्मुक्त मन मयूर नाचने लगे जब
चेहरे पर दमके जब मुस्कान उनकी

बाखुदा वो हुश्न, वो रंग, वो परी सी क़यामत.
बड़ी गहरी और उनकी वो चमकदार आँखें.
मदहोश कर दे जो किसी भी पल में
ऐसी अब तक की असरदार मुस्कान है उनकी...
तिलिस्म कहूँ या कह दूँ निगाहें उनकी....


धीरेन्द्र चौहान "देवा"

Wednesday, September 24, 2008

प्रीत कथन

मेरी प्रीत ने मुझसे कुछ आकर कहा
रुक रुक कर मगर कुछ तो कहा
में बड़ी देर से सुन रहा था ध्यान लगाकर
मगर जो चाहत और उम्मीद थी जगी मन में
आज ऐसा पल आएगा और सच होने का अंदेशा था
प्रीत ने मगर मुझसे कुछ और कहा

बड़ी जिल्लत उठाई थी इस दिल ने
सपने जो टूटकर बिखर गए थे
दिल के ही किसी कोने से लेकिन आवाज आयी
और मेरी प्रीत के बारे में मुझसे कहा
अब फिर सुन रहा था में ध्यान लगाकर
न कोई चाहत और उम्मीद जगी थी
दिल की सुनने से पहले मेने अपने आप से कुछ कहा
तब असल अमल आया बात पर उसकी
जो मेरी प्रीत ने मुझसे आकर कहा

कहते हैं सच नंगी आंखों से देखा जाता है
झूठा सच तब बेपर्दा होता है
जब सच में दुख आ जाता है
यूँ तो हर बार कहा था उसने चलना मेरे दोस्त संभलकर
जब ठोकर कहीं लग जाती है इन्सान तब कहीं जाकर समझ पता है

मगर में तो ठोकर खाता रहा
और प्रीत मेरा मुझसे कहता रहा
मेने सोचा चलना ही जिंदगी है। चाहे बैसाखियों पर चलता रहा
धोखा भी यार बहुत जरुरी है। इससे मन मजबूत होता जाता है
कुछ चिट्ठियां मेने भी बांची हैं इस सुनसान वीराने में
रात के घने अंधेरे में दहकते गर्म दिन के उजाले में

सच बड़ा कठोर और कड़वा होता है
बड़ी मुस्किल से मेने इस सच को सहा
सब सुनते सुनते तब मुझे ध्यान आया
के मेरे कड़वे प्रेम ने क्या आकर मुझसे कहा॥

धीरेन्द्र चौहान " देवा"

Thursday, August 21, 2008

जीत जमाने से फितरत है मेरी.

जीत जमाने से फितरत है मेरी.
में यूँ ही कहीं ठहर जाता नही
में विफलता का पर्याय नही.
मेहनत से बनी जो
कर्मभूमि है मेरी.
जीत ज़माने से फितरत है मेरी..

मेरी ललकार हुंकार भर दे
चुनौती जो पसंद उन्हें परास्त कर ले.
में जीवन में विश्वास भरूं
हर क्षण में तू अहसास है मेरी
जीत जमाने से फितरत है मेरी.

जब कुछ हलचल होती है.
मन में जो कोई दुःख भर दे.
आंखों से अश्क भी अश्क भी बहते हैं.
स्वार्थ से छलनी सीना कर दे,

मगर ये क्षणिक अहसास हैं
जो मुझे डिगाते नही
याद हर बार दिलाते हैं
इनकी मुझे परवाह नही..
एक स्वर्णिम मंजिल चाहत मेरी
जीत जमाने से फितरत है मेरी

धीरेन्द्र चौहान "देवा"