जीत जमाने से फितरत है मेरी.
में यूँ ही कहीं ठहर जाता नही
में विफलता का पर्याय नही.
मेहनत से बनी जो
कर्मभूमि है मेरी.
जीत ज़माने से फितरत है मेरी..
मेरी ललकार हुंकार भर दे
चुनौती जो पसंद उन्हें परास्त कर ले.
में जीवन में विश्वास भरूं
हर क्षण में तू अहसास है मेरी
जीत जमाने से फितरत है मेरी.
जब कुछ हलचल होती है.
मन में जो कोई दुःख भर दे.
आंखों से अश्क भी अश्क भी बहते हैं.
स्वार्थ से छलनी सीना कर दे,
मगर ये क्षणिक अहसास हैं
जो मुझे डिगाते नही
याद हर बार दिलाते हैं
इनकी मुझे परवाह नही..
एक स्वर्णिम मंजिल चाहत मेरी
जीत जमाने से फितरत है मेरी
धीरेन्द्र चौहान "देवा"
Thursday, August 21, 2008
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