Monday, December 22, 2008

"मेरी क्रिसमस"

धागों सी लगुली
और लागुल्यों माँ फल
फल छीन मीठा
और मीठू वोंकू रश
दिसम्बर कु मेनू
आखिरी दिन बस
द्वी दिन बाद कु
मी आज ही ब्वेली दयों
"मेरी क्रिसमस"


धीरेन्द्र चौहान "देवा"

Monday, October 6, 2008

"बौल्या दादा"

"बौल्या दादा"
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पौडी खाल कु बौल्या दादा
बुध्यंदा माँ बोल्येगे.
छंदा नाती नातुनो कु
गौं गौं माँ रिडियेगे..

बुडुरी दगडी लड़ी जब निर्भाग बुड्या..
तब ता सरम नि आयी
भूखा पेट लेकी च घुम्नाओ
चार दिन बाटी कुछ नि खाई

गों का छोरु ते एक न्यु खेल ह्वेगी
हमारू यु बौल्या दादा
भागाणु च छोरु का पिछने
लेकी तें खूब लाठा बतेंडा.

शर्मसार च हुयों. और मुख लात्केकी
जब बुड्या घर वापस आयी
निर्भाग बुडुरी कु प्रेम तब उमड़ी
जब बुड्या न पतेलु भरी भात खाई

"चिर यौवन सौंदर्य.."

सौंदर्य..

तिलिस्म कहूँ या कह दूँ निगाहें उनकी.
जादुई पलकें और उनका सहारा..
हो के तुम चिर यौवन सौंदर्य.
अनोखे पलों में सजी काया है उनकी.

अधरों पे मुस्कान बिखर जाती है.
फिर जब पलकें क़यामत ढाती हैं.
खुदा का करम फिर होता है मुझ पर
मिल जाती हैं हमसे जब निगाहें उनकी..

अनायास ही एक ख़याल आता है
जब मौजूदगी उनकी महक जाती है
उन्मुक्त मन मयूर नाचने लगे जब
चेहरे पर दमके जब मुस्कान उनकी

बाखुदा वो हुश्न, वो रंग, वो परी सी क़यामत.
बड़ी गहरी और उनकी वो चमकदार आँखें.
मदहोश कर दे जो किसी भी पल में
ऐसी अब तक की असरदार मुस्कान है उनकी...
तिलिस्म कहूँ या कह दूँ निगाहें उनकी....


धीरेन्द्र चौहान "देवा"

Wednesday, September 24, 2008

प्रीत कथन

मेरी प्रीत ने मुझसे कुछ आकर कहा
रुक रुक कर मगर कुछ तो कहा
में बड़ी देर से सुन रहा था ध्यान लगाकर
मगर जो चाहत और उम्मीद थी जगी मन में
आज ऐसा पल आएगा और सच होने का अंदेशा था
प्रीत ने मगर मुझसे कुछ और कहा

बड़ी जिल्लत उठाई थी इस दिल ने
सपने जो टूटकर बिखर गए थे
दिल के ही किसी कोने से लेकिन आवाज आयी
और मेरी प्रीत के बारे में मुझसे कहा
अब फिर सुन रहा था में ध्यान लगाकर
न कोई चाहत और उम्मीद जगी थी
दिल की सुनने से पहले मेने अपने आप से कुछ कहा
तब असल अमल आया बात पर उसकी
जो मेरी प्रीत ने मुझसे आकर कहा

कहते हैं सच नंगी आंखों से देखा जाता है
झूठा सच तब बेपर्दा होता है
जब सच में दुख आ जाता है
यूँ तो हर बार कहा था उसने चलना मेरे दोस्त संभलकर
जब ठोकर कहीं लग जाती है इन्सान तब कहीं जाकर समझ पता है

मगर में तो ठोकर खाता रहा
और प्रीत मेरा मुझसे कहता रहा
मेने सोचा चलना ही जिंदगी है। चाहे बैसाखियों पर चलता रहा
धोखा भी यार बहुत जरुरी है। इससे मन मजबूत होता जाता है
कुछ चिट्ठियां मेने भी बांची हैं इस सुनसान वीराने में
रात के घने अंधेरे में दहकते गर्म दिन के उजाले में

सच बड़ा कठोर और कड़वा होता है
बड़ी मुस्किल से मेने इस सच को सहा
सब सुनते सुनते तब मुझे ध्यान आया
के मेरे कड़वे प्रेम ने क्या आकर मुझसे कहा॥

धीरेन्द्र चौहान " देवा"

Thursday, August 21, 2008

जीत जमाने से फितरत है मेरी.

जीत जमाने से फितरत है मेरी.
में यूँ ही कहीं ठहर जाता नही
में विफलता का पर्याय नही.
मेहनत से बनी जो
कर्मभूमि है मेरी.
जीत ज़माने से फितरत है मेरी..

मेरी ललकार हुंकार भर दे
चुनौती जो पसंद उन्हें परास्त कर ले.
में जीवन में विश्वास भरूं
हर क्षण में तू अहसास है मेरी
जीत जमाने से फितरत है मेरी.

जब कुछ हलचल होती है.
मन में जो कोई दुःख भर दे.
आंखों से अश्क भी अश्क भी बहते हैं.
स्वार्थ से छलनी सीना कर दे,

मगर ये क्षणिक अहसास हैं
जो मुझे डिगाते नही
याद हर बार दिलाते हैं
इनकी मुझे परवाह नही..
एक स्वर्णिम मंजिल चाहत मेरी
जीत जमाने से फितरत है मेरी

धीरेन्द्र चौहान "देवा"

Tuesday, August 19, 2008

शहर.

शहर.

चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.
अब कोई मंजिल नही यहाँ.
सुनसान जीना भी क्या जीना है.
सब तो छोड़ गए
कही और बस गए.
अब तो लगता नही मन यहाँ.

चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.

याद है मुझे
जब में आकर बस गया था यहाँ
कुछ सच्चे यार मिले थे
सच कुछ सच्चे प्यार मिले थे.
मालूम नही मुझे
बसते हैं अब वो कहाँ.

चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.

वैसे जाने से पहले कुछ बात कहूँ
यारों के यार हैं.
तो कैसे इस तन्हाई को सहूँ.

नही अच्छा लगता, अब लौट आओ यहाँ.
ताकि न कहना पड़े
चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.

धीरेन्द्र चौहान. "देवा"

Monday, August 11, 2008

परदेशी मुलुक

!!! परदेशी मुलुक !!!

मैं भी जब जवान होयुं।
मैन भी तब ही देखि। स्यूं का सयौं लोग भागन लाग्यां छीन किले। तब मैन भी जानी।

जीवन माँ लोग अपुडू घर छोड़ी।
परदेशी मुलुक किले छीन जायां।
अपुडू रौन्ताल्यु उत्तराखंड छोड़ी
तत्गा दूर किले छीन जयां।

जब में थें भी घर छोड़ी जान पड़ी। मिन भी तब ही देखि।
जब अपुदा घर की याद औंदी छाई, तब मिन भी जानी।

याखा नि करदू क्वे कै सी भी प्यार, सु दुलार और स्य चिंता हर कैकी
सुख दुःख माँ साथ देनु सबुकू। और ग्वोरू की फिकर और फुन्गाणु माँ पडयाल कनु हर कैकी।

जब सास छो कैकी चिंता कु और नि मिली। मिन भी तब ही देखि ।
जब नि पूछी कैन भी हाल मेरा । तब मैन भी जानी।

अब ता में भी ज्ञानवान ह्वेयुं । मिन भी अब देखि।
किले छीन लोग भागन लाग्यां अब मिन भी जानी।

Thursday, July 31, 2008

शौणु भाई जी कु ब्व्ग्ठया !!!

दोस्तों मैंने आज तक कभी गढ़वाली में कोई रचना नही लिखी है। मगर जयाडा जी की सुंदर कविताओं से प्रेरित होकर मैंने भी एक कविता लिखने की कोशिस की है जिसे मैं आप लोगों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ।

शौणु भाई जी कु ब्व्ग्ठया
आज बल बाघ न मारी
खुजौण लाग्यां छीन भाई बंध सभी
देखा आज सारियों का सारी...

यखनि मिली तख नि मिली
बवन लाग्यां छन सभी भाई
रुमुक पव्डी गे अर खुज्योरू के वे
घर माँ परेशां पुरी कुटुम्दारी ...

शौणु भाई जी की ब्वे भट्याणी
घर अवा सभी रात पव्डी ग्यायी
मेरा शौणु का बखरा यानि गैन
नि के होली हमुन कभी कैकी भल्यारी॥


अब ता ब्व्ग्ठया मिली गे घर भी ल्ये गैनी
सची मरयूं पाई।
झटपट जगे आग अर सजे गैनी परात।
भली करी भाडयायी।

पडोश माँ प्रधान जब तोन सुंणी
अपुदु थैलू भी लीक आयी
ब्व्ग्ठया देखि और सोची बिचारी
तब बीस बाँट लगाई

में थे भी क्या चेनू छो
मिन भी दौड़ लगाई
एक बाँट उधार करी की
चुपचाप अपुडा घर आयी

यन भी होन्दु च दग्द्यों कभी
सोचिदी सोचिदी बखरू पकाई
प्वेटीगी भरी की टुप स्ये गयों
आज इनु बखुरु खाई॥


रचनाकार.
धीरेन्द्र सिंह चौहान॥ "देवा"