Tuesday, August 19, 2008

शहर.

शहर.

चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.
अब कोई मंजिल नही यहाँ.
सुनसान जीना भी क्या जीना है.
सब तो छोड़ गए
कही और बस गए.
अब तो लगता नही मन यहाँ.

चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.

याद है मुझे
जब में आकर बस गया था यहाँ
कुछ सच्चे यार मिले थे
सच कुछ सच्चे प्यार मिले थे.
मालूम नही मुझे
बसते हैं अब वो कहाँ.

चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.

वैसे जाने से पहले कुछ बात कहूँ
यारों के यार हैं.
तो कैसे इस तन्हाई को सहूँ.

नही अच्छा लगता, अब लौट आओ यहाँ.
ताकि न कहना पड़े
चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.

धीरेन्द्र चौहान. "देवा"

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