जीत जमाने से फितरत है मेरी.
में यूँ ही कहीं ठहर जाता नही
में विफलता का पर्याय नही.
मेहनत से बनी जो
कर्मभूमि है मेरी.
जीत ज़माने से फितरत है मेरी..
मेरी ललकार हुंकार भर दे
चुनौती जो पसंद उन्हें परास्त कर ले.
में जीवन में विश्वास भरूं
हर क्षण में तू अहसास है मेरी
जीत जमाने से फितरत है मेरी.
जब कुछ हलचल होती है.
मन में जो कोई दुःख भर दे.
आंखों से अश्क भी अश्क भी बहते हैं.
स्वार्थ से छलनी सीना कर दे,
मगर ये क्षणिक अहसास हैं
जो मुझे डिगाते नही
याद हर बार दिलाते हैं
इनकी मुझे परवाह नही..
एक स्वर्णिम मंजिल चाहत मेरी
जीत जमाने से फितरत है मेरी
धीरेन्द्र चौहान "देवा"
Thursday, August 21, 2008
Tuesday, August 19, 2008
शहर.
शहर.
चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.
अब कोई मंजिल नही यहाँ.
सुनसान जीना भी क्या जीना है.
सब तो छोड़ गए
कही और बस गए.
अब तो लगता नही मन यहाँ.
चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.
याद है मुझे
जब में आकर बस गया था यहाँ
कुछ सच्चे यार मिले थे
सच कुछ सच्चे प्यार मिले थे.
मालूम नही मुझे
बसते हैं अब वो कहाँ.
चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.
वैसे जाने से पहले कुछ बात कहूँ
यारों के यार हैं.
तो कैसे इस तन्हाई को सहूँ.
नही अच्छा लगता, अब लौट आओ यहाँ.
ताकि न कहना पड़े
चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.
धीरेन्द्र चौहान. "देवा"
चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.
अब कोई मंजिल नही यहाँ.
सुनसान जीना भी क्या जीना है.
सब तो छोड़ गए
कही और बस गए.
अब तो लगता नही मन यहाँ.
चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.
याद है मुझे
जब में आकर बस गया था यहाँ
कुछ सच्चे यार मिले थे
सच कुछ सच्चे प्यार मिले थे.
मालूम नही मुझे
बसते हैं अब वो कहाँ.
चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.
वैसे जाने से पहले कुछ बात कहूँ
यारों के यार हैं.
तो कैसे इस तन्हाई को सहूँ.
नही अच्छा लगता, अब लौट आओ यहाँ.
ताकि न कहना पड़े
चल चलें इस शहर से
अब कोई चहल लगती नही यहाँ.
धीरेन्द्र चौहान. "देवा"
Monday, August 11, 2008
परदेशी मुलुक
!!! परदेशी मुलुक !!!
मैं भी जब जवान होयुं।
मैन भी तब ही देखि। स्यूं का सयौं लोग भागन लाग्यां छीन किले। तब मैन भी जानी।
जीवन माँ लोग अपुडू घर छोड़ी।
परदेशी मुलुक किले छीन जायां।
अपुडू रौन्ताल्यु उत्तराखंड छोड़ी
तत्गा दूर किले छीन जयां।
जब में थें भी घर छोड़ी जान पड़ी। मिन भी तब ही देखि।
जब अपुदा घर की याद औंदी छाई, तब मिन भी जानी।
याखा नि करदू क्वे कै सी भी प्यार, सु दुलार और स्य चिंता हर कैकी
सुख दुःख माँ साथ देनु सबुकू। और ग्वोरू की फिकर और फुन्गाणु माँ पडयाल कनु हर कैकी।
जब सास छो कैकी चिंता कु और नि मिली। मिन भी तब ही देखि ।
जब नि पूछी कैन भी हाल मेरा । तब मैन भी जानी।
अब ता में भी ज्ञानवान ह्वेयुं । मिन भी अब देखि।
किले छीन लोग भागन लाग्यां अब मिन भी जानी।
मैं भी जब जवान होयुं।
मैन भी तब ही देखि। स्यूं का सयौं लोग भागन लाग्यां छीन किले। तब मैन भी जानी।
जीवन माँ लोग अपुडू घर छोड़ी।
परदेशी मुलुक किले छीन जायां।
अपुडू रौन्ताल्यु उत्तराखंड छोड़ी
तत्गा दूर किले छीन जयां।
जब में थें भी घर छोड़ी जान पड़ी। मिन भी तब ही देखि।
जब अपुदा घर की याद औंदी छाई, तब मिन भी जानी।
याखा नि करदू क्वे कै सी भी प्यार, सु दुलार और स्य चिंता हर कैकी
सुख दुःख माँ साथ देनु सबुकू। और ग्वोरू की फिकर और फुन्गाणु माँ पडयाल कनु हर कैकी।
जब सास छो कैकी चिंता कु और नि मिली। मिन भी तब ही देखि ।
जब नि पूछी कैन भी हाल मेरा । तब मैन भी जानी।
अब ता में भी ज्ञानवान ह्वेयुं । मिन भी अब देखि।
किले छीन लोग भागन लाग्यां अब मिन भी जानी।
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